बुधवार, 9 मार्च 2011

एक इंसान की तरह


हमेशा गतिमान 
ऊर्ध्वगामी 
नहीं देखा है मैंने ,
धुएं को 
आराम करते हुए.
अँधेरा हो या उजाला 
धूप हो या छाँव 
दिन हो रात 
वो ,
हमेशा चलता रहता है.
पर,
हवा की हल्की सी 
आहट,
विचलित,भयभीत,अस्थिर
कर देती है उसे.
नहीं परवाह होती है उसे 
मौसम की.
उसे नहीं परवाह होती अपने 
उद्गम की .
वो छू लेना चाहता है 
आकाश ,
अपने 
जन्मदाता को भूलकर ,
फ़ैल जाना चाहता है ,
पूरी दुनिया पर .
पर खो जाता है 
अधिक ऊंचाइयों पर 
जाकर ,
वो भूल जाता है अपने 
उद्गम स्थान को
उद्गमकर्ता  को ,
जाने कितने फूंक मारकर ,
कितने आंसू पोंछकर 
धुंए को उसने पैदा किया है ,
पर वो भूल जाता है,
उन
बलिदानों को 
एक इंसान की तरह.
जो 
कमाना चाहता है ,
उपलब्धियां 
हर चट्टान से टकराना 
जानता है ,
पार कर लेता है हर दीवार .
पर
भूल जाता है वो 
ये
उसे भी 
धुंए की तरह 
हो जाना है 
विलुप्त,अदृश्य.
फिर भी वो भूल 
जाता है अपने 
उद्गमकर्ता को ,
अपने जन्मदाता को.



2 टिप्पणियाँ:

यहां 15 मार्च 2011 को 2:35 am बजे, Blogger aaira ने कहा…

बहुत बढ़िया ...

 
यहां 16 मार्च 2011 को 4:41 am बजे, Blogger Nikhil Srivastava ने कहा…

full of insight and pure thoughts. this post shows your depth. many of us just write without a purpose or look for a purpose after writing but you have written a very deep and penetrating piece. hats off!

 

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