एक इंसान की तरह
हमेशा गतिमान
ऊर्ध्वगामी
नहीं देखा है मैंने ,
धुएं को
आराम करते हुए.
अँधेरा हो या उजाला
धूप हो या छाँव
दिन हो रात
वो ,
हमेशा चलता रहता है.
पर,
हवा की हल्की सी
आहट,
विचलित,भयभीत,अस्थिर
कर देती है उसे.
नहीं परवाह होती है उसे
मौसम की.
उसे नहीं परवाह होती अपने
उद्गम की .
वो छू लेना चाहता है
आकाश ,
अपने
जन्मदाता को भूलकर ,
फ़ैल जाना चाहता है ,
पूरी दुनिया पर .
पर खो जाता है
अधिक ऊंचाइयों पर
जाकर ,
वो भूल जाता है अपने
उद्गम स्थान को
उद्गमकर्ता को ,
जाने कितने फूंक मारकर ,
कितने आंसू पोंछकर
धुंए को उसने पैदा किया है ,
पर वो भूल जाता है,
उन
बलिदानों को
एक इंसान की तरह.
जो
कमाना चाहता है ,
उपलब्धियां
हर चट्टान से टकराना
जानता है ,
पार कर लेता है हर दीवार .
पर
भूल जाता है वो
ये
उसे भी
धुंए की तरह
हो जाना है
विलुप्त,अदृश्य.
फिर भी वो भूल
जाता है अपने
उद्गमकर्ता को ,
अपने जन्मदाता को.
2 टिप्पणियाँ:
बहुत बढ़िया ...
full of insight and pure thoughts. this post shows your depth. many of us just write without a purpose or look for a purpose after writing but you have written a very deep and penetrating piece. hats off!
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