बुधवार, 13 जुलाई 2011

नीम का पेंड़


आज ख़त्म हो गया
वो पुराना नीम का पेंड़.
जो झूम उठता था
सावन में झूले पड़ने पर
जो तपती धूप में
पथिको को देता था
दो पल सुकून के.
उसके कई साथी
मिलकर
मौसम को खुशनुमा बना देते थे.
शायद आज
लोगों को ज़रुरत ही नहीं है.
इनके छाँव की और इनकी डालों पर
पड़ने वाले झूलों की.
लोगों ने ढूंढ लिया है
एसी, कूलर को इनके विकल्प के तौर पर .
पर लोग भूल जाते हैं
इन्ही पेड़ों के नीचे लगती थी
चौपालें,
इनके बुजुर्गों की.
अब कहाँ होती हैं चौपालें
कहाँ होता है वक़्त चौपालों के लिए
अब तो मीटिंग्स होती हैं
बंद कमरों में,
जंगल काटकर बिल्डिंग्स बनाने के लिए.
भले ही शहर तप जाय.
फिर चलायी जाती है
एक परंपरागत मुहिम
वृक्षारोपण की .
जिसमें बन बैठते हैं कुछ
धनकुबेर.
बुजुर्गों द्वारा रोपे गए,
पौधे, जो पहले पेड़ और फिर बने विशाल वृक्ष
ख़त्म कर दिए गए हैं
'विकास' के नाम पर
जो छोड़ गए हैं यादें,
हमारे बुजुगों की तरह
और उस नीम के पेड़ की तरह.

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