गुरुवार, 17 मार्च 2011

प्राकृतिक आपदाए और हम

     प्राकृतिक आपदाए हमेशा हमारी कल्पना और उम्मीद से ज्यादा भीषण होती हैं. हमने भले ही खुद को वैज्ञानिक स्तर पर कितना  भी प्रगतिशील एवं एडवांस बना लिया हो ,लेकिन प्रकृति के प्रकोप के आगे  सबकुछ  निरर्थक लगता है. कम से कम  जापान के उत्तर-पूर्वी इलाके में आये विनाशकारी भूकंप और सुनामी को देखकर तो यही लगता है. वहां अब तक लगभग १०,000 से भी ज्यादा लोग मारे जा चुके हैं लाखों बेघर हैं और मौजूदा किल्लतों
का सामना कर रहे हैं.हम हर बार प्रकृति के आगे एक बेबस एवं लाचार योढ्हा बनकर रह जाते हैं. क्या इन सब के जिम्मेदार सिर्फ हम ही नहीं हैं ?अगर हम सिर्फ पिछले दस वर्षो पर गौर करें तो हम पाते हैं कि इन आपदाओं कि संख्या में लगातार इजाफा ही हुआ है, पूरे विश्व ने कई बार इस विभीषिका को झेला है.  कहीं बाढ़, कहीं भूकंप तो कहीं आग ने हमारी तथाकथित वैज्ञानिक प्रगति को बौना साबित किया है.  हम विश्लेषण करे तो पायेंगे कि हमने विश्व स्तर पर खुद को स्थापित करने के लिए लगातार प्रकृति का दोहन किया है. जिसके कारण हम जलवायु परिवर्तन एवं भौगोलिक बदलावों के वाहक बनें, परिणामस्वरुप हम एक के बाद एक विनाश का सामना कर रहे हैं और हर बार सिर्फ अफ़सोस जताकर रह जाते हैं. कहना गलत ना होगा कि यदि हमने पर्यावरण एवं प्रकृति का ख्याल न रखा तो हमें इन संकटों कि आदत डालनी होगी . इसलिए ज़रूरी है कि अब हम पर्यावरण और प्रकृति को ध्यान में रखकर स्थायी विकास का प्रयास करें. अन्यथा हो सकता है एक दिन  हमारी स्थिति  बयान करने लायक भी ना रहे.   

सोमवार, 14 मार्च 2011

बहुत हो गया अब.....

                   अरे भई अब तो सरकार को कोसना बंद करो, और ये बात तो आपको माननी ही पड़ेगी कि हम 'इंडियंस' काम कम और शिकायतें ज्यादा करते हैं. लीजिए एक ही झटके में कई समस्याओं का निपटारा कर दिया है हमारी सरकार ने. घरेलू हिंसा, परीक्षा का तनाव, ख़ुशी से झूमने के लिए, गम को कम करने के लिए और महंगाई से राहत देने का क्या गज़ब तरीका निकाला है हमारी सरकार ने. मान गए भई, ऐसे ही थोड़े ना दुनिया 'इन्डियन ब्रेन' का लोहा मानती है .खैर ,चलिए हम ही आपको बता देते हैं - अप्रैल से शुरू होने वाले वित्त वर्ष में प्रदेश भर में 1000 नए मयखाने खोलने का प्रस्ताव है और तो और इसकी खपत बढ़ाने के लिए १०० मिलीलीटर के छोटे और सस्ते  पाउच भी बाज़ार में उतारने का फैसला किया गया है .सिर्फ अपने लखनऊ शहर में ही २९ नए मयखाने खोले जायेंगे .सोंचिए अब सीन क्या होगा ?अब जब कम पैसे में शराब मिलेगी तो जाम भी छलकेगा और घर भी चलेगा. जिससे पत्नी पति की शराब पीने कि आदत से परेशान नहीं होगी, तो झगड़ा नहीं होगा और जब झगड़ा नहीं होगा तो स्वाभाविक सी बात है घरेलू हिंसा भी नहीं होगी. इसके अलावा परीक्षा का तनाव कम करने के लिए हो सकता है ,माँ अपने लाडले को बोले -बेटा एक घूँट ले ही लो क्योंकि दूध एक तो महँगा है, दूसरे शुद्ध मिलना मुश्किल है तो इसे पीने से कम से कम तनाव तो कम हो ही जाएगा. बाकी आप तो समझदार हैं ही , 'खुशी हो या हो ग़म हो कहीं शमा बांधती है शराब'.अब रही बात महंगाई कि तो, अरे भइया, जहां एक चीज़ सस्ते में मिले और इतनी सारी समस्याओं से छुटकारा मिल जाए तो दूसरी चीज़ों पर थोड़ा पैसा खर्च भी हो जाए तो क्या ? खाद्यपदार्थ थोड़े महँगे तो हैं  ही पर क्या फर्क पड़ता है ? और वैसे भी हम लोग एडजस्ट तो कर ही रहे है ,महंगाई कि भी आदत पड़ ही जायेगी. वैसे भी ये तो एक राजनीतिक मुद्दा है .तो भई अब बहुत हो गया, अब तो सरकार को कोसना बंद कर कर दें .कितना ख्याल रखती है हमारा. 























बुधवार, 9 मार्च 2011

हम ज़रूर जीतेंगे


 
इन दिनों हर खेल प्रेमी की बस यही दुआ है कि" भारत एक बार फिर विश्व क्रिकेट का शहंशाह बने".पूरा भारतवर्ष इस समय क्रिकेट फीवर कि गिरफ्त में है ,चाहे वो व्यक्ति किसी भी धर्मं का हो या किसी भी उम्र वय का.देखकर बड़ी ख़ुशी होती है कि कम से कम एक मुददा तो ऐसा है जिसपर हर व्यक्ति की एक ही राय है "विश्व कप भारत ही जीते ".चाय की दुकानों पर, ट्रेन के डिब्बो में या जहाँ भी चार पाँच लोग खड़े हो जाते हैं गाहे बगाहे क्रिकेट उनके लिए एक हॉटकेक है, और हो भी क्यों ना आखिर महंगाई की मार झेलती जनता ,करियर में सफल होने का दबाव और भ्रस्ताचार से लाचार देश को इसी खेल ने ही समय-समय पर गर्व करने का मौका दिया है.
                खैर ,हम सब की दुआए भारत के साथ हैं "हम ज़रूर जीतेंगे .सिर्फ क्रिकेट ही नहीं हम तो यह चाहते है कि हर खेल प्रतिस्पर्धा में भारत जीते ,नहीं तो अपनी उपस्थिति  तो अवश्य दर्ज कराये .लेकिन क्या हमारी सरकार ऐसा चाहती है ,मुझे तो नहीं लगता है .मैं ऐसा इसलिए कह रहा हूँ क्योंकि राष्ट्रमंडल और एशियाई खेलो में अब तक का सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन करने के बाद भी पिछले दिनों आये बजट में खेलो के विकास के लिए कुछ भी नहीं किया गया है.मुझे उम्मीद थी कि शायद इस बार इसके लिए धन का प्रावधान ज़रूर होगा .क्या हमारी सरकारों को सिर्फ मेडल के बदले खिलाड़ियों को धन देकर अपना काम पूरा समझना चाहिए .
                भारत में खेलों में  करियर बनाना या ऐसा करने का सपना देखना  आज भी काफी मुश्किल है .ये तो हम नहीं कह सकते कि हमारे पास धन कि कमी है.कमी है तो सिर्फ एक इच्छाशक्ति की .इसलिए हमें मुश्किल से ऐसे खिलाड़ियों  के नाम याद आते हैं जिन्होंने हाकी या अन्य खेलो को अपना जीवन दिया है .हमें ये तो याद है की भारत ने राष्ट्रमंडल खेलो में १०१ पदक जीते लेकिन क्या हमने उनके बारे में सोंचा है जिन्होंने सुविधाओ के आभाव में खेल को अलविदा कह दिया है .क्या हम इयान थोर्प या माइकल फेलप्स जैसे तैराक नहीं दे सकते .आप गाँव में जायेंगे तो पानी में बड़ी कुशलता से विपरीत धारा में तैरते और करतब  करते बच्चो को देखकर उनमे देश का प्रतिनिधितव करने की सम्भावना  पा सकते हैं  .झारखण्ड के आदिवासी क्षेत्रो में लोग आज भी धनुष बाड़ का प्रयोग करते हैं क्या उनमे से कोई निशाने बाज़ नहीं बन सकता ,उनका हाथ तो पहले से ही उस पर सेट होता है .ग्रामीण क्षेत्रो में लोग आज भी यातायात के लिए साइकिल का ही इस्तेमाल करते हैं. इन जैसे जन्मजात प्रतिभाशाली लोगो को  बस ज़रुरत हैं सुविधाए देने की और उनका  सही मार्गदर्शन करने  की .हमारे पास भी पदको का अम्बार होगा .
                सोंचकर देखिए कितना अच्छा लगता है जब हम फिर से हाकी में स्वर्ण पदक जीतेंगे .पूरा भारत टीम के फ़ुटबाल विश्वकप जीतने की दुआ करेगा .विश्व स्तर पर आयोजित होने वाले खेलो में भारत सर्वाधिक पदक जीतेगा .बस, ज़रुरत है खेलो पर ध्यान देने की और सही नीतिया बनाने की और उन पर अमल करने की .हमारे पास भी क्षमता है की हम विश्वस्तर पर रोज़र फेडरर  और रोनाल्डो जैसे खिलाडी दे सके. 

 
 







एक इंसान की तरह


हमेशा गतिमान 
ऊर्ध्वगामी 
नहीं देखा है मैंने ,
धुएं को 
आराम करते हुए.
अँधेरा हो या उजाला 
धूप हो या छाँव 
दिन हो रात 
वो ,
हमेशा चलता रहता है.
पर,
हवा की हल्की सी 
आहट,
विचलित,भयभीत,अस्थिर
कर देती है उसे.
नहीं परवाह होती है उसे 
मौसम की.
उसे नहीं परवाह होती अपने 
उद्गम की .
वो छू लेना चाहता है 
आकाश ,
अपने 
जन्मदाता को भूलकर ,
फ़ैल जाना चाहता है ,
पूरी दुनिया पर .
पर खो जाता है 
अधिक ऊंचाइयों पर 
जाकर ,
वो भूल जाता है अपने 
उद्गम स्थान को
उद्गमकर्ता  को ,
जाने कितने फूंक मारकर ,
कितने आंसू पोंछकर 
धुंए को उसने पैदा किया है ,
पर वो भूल जाता है,
उन
बलिदानों को 
एक इंसान की तरह.
जो 
कमाना चाहता है ,
उपलब्धियां 
हर चट्टान से टकराना 
जानता है ,
पार कर लेता है हर दीवार .
पर
भूल जाता है वो 
ये
उसे भी 
धुंए की तरह 
हो जाना है 
विलुप्त,अदृश्य.
फिर भी वो भूल 
जाता है अपने 
उद्गमकर्ता को ,
अपने जन्मदाता को.